21 May 2013

देविंदर शर्मा: हमारे भोजन का फैसला जी. एम. कंपनियां करेंगी



जरूर देखें और फेलायें :  

http://www.youtube.com/watch?v=mQm57R7jS8A&feature=em-uploademail-subject6


जी. एम. (जेनेटिकैली मॉडिफाइड) बीजों और फसलों के मानवीय स्वास्थ एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाबों की आशंका से अमेरिका जैसे विकशित देश में भी इनके विरुद्ध जनमत काफी प्रबल है और इस सम्बन्ध मे शोध और प्रयोग करने वाली कंपनियों के विरुद्ध लोग, संस्थाएं और संगठन अक्सर अदालतों मे पहुँच जाती है |

लेकिन इसके बावजूत मार्च माह मे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एच. आर 933 प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करके संघीय अदालतों से ऐसे मुकद्दमे दर्ज करने का संबैधानिक अधिकार हि छीन लिया | इस प्रस्ताव को लोकप्रिय भाषा मे मोनसेनटो प्रोटेक्शन एक्ट के रूप मे जाना जाता है | इस कानून के लागु होने से मोनसेनटो के उप्पादों के जीवन और पर्यावरण पर दुष्प्रभावो के बावजूत न तो उसे जी एम फसलों के शोध से रोका जा सकेगा और न हि जनता के सामने ऐसे खाद्यान्न का उपभोग करने के अलावा और कोई चारा रहेगा |

22 अप्रैल को 2–G स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लाक घोटाले के शोर – शराबे मे भारत सरकार ने संसद मे भारतीय जेब टेक्नोलॉजी मे नियमन प्राधिकरण (ब्राइ या बी आर ए आई) बिधेयक 2013 पारित कर दिया | यह बिधेयक पारित होने से बायोटेक्नोलॉजी नीति उपक्रमों के संघ (ए बी एल इ या एबल) ने खूब खुशियाँ मनाई |

यह बिधेयक पास करने के लिए सरकार ने विश्वविख्यात कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता मे 2004 मे गठित की गई कृषि बायोटेक्नोलॉजी टास्कफोर्स की सिफारिशों को भी ताक पर रख दिया | भारत सरकार ने भी इस विधेयेक के माध्यम से बिओतच्नोलोग्य कंपनियों के रास्ते के सभि अवरोध ओबामा की तरह हि दूर कर दिए हैं | अनेक अर्थों मे भारतीय बिधेयक भी ओबामा की बिधेयक जैसा हि है |

ब्राइ बिधेयक पास होने से बायोटेक्नोलॉजी कंपनियां जी. एम. फसलों के लिए फटाफट और एकल खिड़की अनुमति एवं क्लियरेन्स हासिल कर सकेंगी | यहाँ तक की “गोपनीय व्यावसायिक जानकारी” के पर्दे मे इस विधेयक ने इन कंपनियों को सुचना अधिकार के प्रभाव क्षेत्र से भी बाहर निकल दिया है | कई मामलो मे तो इन्हें अदालती क्षेत्राधिकार से भी मुक्त कर दिया गया है | इस तरह बायोटेक्नोलॉजी कंपनियों और जी. एम. फसलों को शसक्त और कानून संगत कवच प्रदान कर दिया गया है |

पारदर्शिता और जवाबदेही की गला घोटने की जरुरत वोहीं पड़ती है जहाँ किसी खतरनाक चीज को जनता की निगाहों से छिपाना हो | इस काम की शुरुआत सबसे पहले बरिष्ट सरकारी पदों पर बैठे इस उद्योग के समर्थक वैज्ञानिकों और यूनिवर्सिटीयों के प्रोफेसोरों द्वारा होती है जो ‘विज्ञानं – आधारित’ चर्चाओं के नाम पर तथ्यों की तोड़ – मरोड़ करते हैं | ऐसे लोगों मे से कोई भी यह मानने को तैयार नही की जी. एम. फसलें भी पश्चिमी देशों मे ‘मैड काऊ डीजीज’ जैसे खतरनाक रोग के लिए जिम्मेदार थी |

भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् खाद्य सुरक्षा के नाम पर बहुत जोर शोर से जी. एम. फसलों के पक्ष मे प्रचार कर रहीं है | जब पर्यावरण मंत्रालय ने इसके वैज्ञानिक दावों पर सवाल उठायें और इस फसलों (खासकर बी.टी. बैगन) की खेती पर 2010 में प्रतिबंध लगा दिया तो उद्योग बचाव की मुद्रा मे आ गया और साथ प्रमुख राज्यों ने इस फसलों की प्रयोगात्मक खेती के लिए जमीन देने से इनकार कर दिया | फिर पि एम ओ हरकत मे आया और विधेयक को तैयार करने का काम पर्यावरण मंत्रालय से छीन कर साइंस और टेक्नोलॉजी मंत्रालय के हवाले कर दिया |

इस विधेयक पर गंभीर चर्चा की जरुरत है इसलिए की देश के प्रत्येक व्यक्ति पर जी. एम फसलों के दुष्प्रभाव की तलवार लटक रहीं है | लेकिन पि.एम.ओ. को तो केवल कॉर्पोरेट हितों के कल्याण की हि चिंता है | इस विधेयक ने बायोटेक्नोलॉजी कंपनियो को आपके भोजन, स्वास्थ और पर्यावरण से खिलवाड़ करने की असीम शक्तियां प्रदान कर दी हैं | आप चाहे पसंद करें या न, अब सरकार और जी. एम. कंपनियां यह फैसला करेगी की आप को क्या खाने पर मजबूर किया जाये ?

जरूर पढ़ें व् फेलायें : 

http://tehelka.com/who-decides-what-we-eat/

http://epaper.punjabkesari.in/punjab/fullstory/127505828_329173




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