आज
भारत में धर्मपरिवर्तन धंधा बन चुका है जिसके मूल में राजीनीतिक
साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पैसा लगा हुआ है. भारत के
संविधान में मौलिक अधिकारों की धारा 25 के तहत भारत के हर नागरिक को यह
अधिकार मिला हुआ है कि वह कोई धर्म अपनाने के लिए आजाद है. लेकिन आज भारत
में जो धर्मांतरण हो रहा है उसका एक राजनीतिक मकसद है और यह बहुराष्ट्रीय
कंपनी के व्यापार में बदल चुका है. यह परावर्तित लोगों को साम्राज्यवादी
ताकतों का पिछलग्गू बनाता है.
मैं
जब धर्मपरिवर्तन को व्यापार कहता हूं तो यह अनायास नहीं है. इसके पीछे ठोस
तथ्य हैं. इसके लिए मैं सेविन्थ डे एडवेन्टिस्ट चर्च का उदाहरण पेश करना
चाहूंगा. एक अकेले सेवेन्थ डे एडवेन्टिस्ट चर्च ने साल 2004 में विदेशों
से 5850 करोड़ रूपये प्राप्त किये. इस पैसे का उपयोग 10 लाख लोगों का
धर्मपरिवर्तन करने के लिए किया गया. कनाडा के धर्म-प्रचारक रॉनवाट्स
सेवेन्थ डे एडवेन्टिस्ट चर्च के दक्षिण एशिया के प्रमुख हैं. 1997 में
व्यापारिक वीजा लेकर वे भारत में दाखिल हुए थे. जब वे भारत आये थे तो उस
समय इस चर्च के सवा दो लाख सदस्य थे. यह इस चर्च के 103 साल के काम का
नतीजा था. लेकिन बाद के पांच सालों में सदस्यों की संख्या अचनाक बहुत तेजी
से बढ़ी और यह सात लाख हो गयी. ग्लोबल इन्वेगेलिज्म के निदेशक मार्क फिन्ले
ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि अकेले 2004 में भारत में 10 लाख 71 हजार
135 लोगों ने ईसाई धर्म ग्रहण किया जो कि पिछले पंद्रह सालों में सर्वाधिक
था. यही रिपोर्ट कहती है कि भारत में 15 से 30 वर्ष के 6 लाख नौजवान चर्च
के प्रचार, भीड़ को धर्म सभाओं तक लाने व चमत्कारी शो आयोजित करने में लगे
हुए हैं.
अब
यह ज्यादा स्पष्ट नजर आने लगा है कि धर्म परिवर्तन के काम को
साम्राज्यवादी देशों ने अपने हित के कामों में प्रमुख स्थान दिया है. कनाडा
की डोरोथी वाट्स एक योजना चला रही हैं जिसका नाम है 10 गांव और 25 घर. यह
एक धर्मपरिवर्तन योजना है जो गांवों को अपना निशाना बनाती है. 1998 में 10
गांव कार्यक्रम 17 बार चलाए गये और उससे 9337 लोग ईसा की शरण में पहुंचे.
1999 में यह कार्यक्रम 40 बार आयोजित किया गया और इस साल इससे 40 हजार लोग
ईसाई बने. अपने इन शुरूआती नतीजों से उत्साहित होकर डोरोथी वाट्स ने अब 50
गांव योजना शुरू की है. इससे हर महीने 10 हजार लोगों को बैप्टाईज किया जा
सकेगा या ईसाई बनाया जा सकेगा.
अमेरिका
की मैसिव इवेन्गुलाईजेशन आफ इंडिया नामक संस्था धर्म प्रचार और धर्म
परिवर्तन की नयी तकनीकि से लैस होकर इस काम में उतरी है. यूं तो यह योजना
1990 में शुरू की गयी थी लेकिन बुश जूनियर के अमरीकी राष्ट्रपति बनने के
बाद इसे गति मिली. इस योजना का असली मकसद है कि भारत को तेजी से ईसाई देश
में बदलना है. इस योजना के तहत भारत गरीबों का धर्म परिवर्तन करके उन्हें
ज्यादा से ज्यादा चर्च निर्माण के लिए जगह उपलब्ध कराना है. इस संस्था के
पास पैसे की कमी नहीं है और वह एक पास्टर (मुख्य ईसाई प्रचारक) को 10 हजार
रूपये मासिक तनख्वाह देती है. एक पास्टर के नीचे जो लड़के काम करते हैं
उन्हें तीन से पांच हजार रूपये मासिक दिया जाता है. इसके अलावा गांव में
जिन्हें रिसोर्स पर्सन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है उन्हें भी पांच सौ
रूपये मासिक दिया जाता है.
धर्म
परिवर्तन का असर तब दिखाई पड़ता है जब ईसाई अलग राज्य की मांग करने लगते
हैं.या फिर अलग देश का ही सपना देखने लगते हैं. उत्तर पूर्व में नेशनल
लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा बाकायदा अलग ईसाई राज्य बनाने का आंदोलन चला रहा
है. उसकी घोषणा में साफ लिखा है कि उसे त्रिपुरा को खुदा की राजधानी बनाना
है. अप्रैल सन 2000 में सीआरपीएफ ने बैप्टिस्ट चर्च आफ त्रिपुरा के सचिव
को भारी मात्रा में गोला-बारूद, 50 जिलेटिन की छड़ें, 5 किलो पोटेशियम, 2
किलो सल्फर और बम बनाने के दूसरे सामान के साथ गिरफ्तार किया था. चर्च का
दूसरा पदाधिकारी जटन कोलोई ने गिरफ्तार होने पर बयान दिया कि उसने नेशनल
लिब्रेशन फ्रण्ट आफ त्रिपुरा के बेस में गोरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण लिया
है.
इन्हीं
बातों को देखते हुए हम धर्म परिवर्तन को सही नहीं मानते. अगर धर्मपरिवर्तन
साम्राज्यवादी हितों की पूर्ती, जातीय उत्पीड़न और सामाजिक गैर बराबरी को
बढ़ाता है तो हम इसका विरोध करते हैं. अगर वह चर्चों, मिशन, अस्पतालों और
शिक्षण संस्थानों में उच्च जाति के ईसाईयों का कब्जा बरकार रखता है और
गरीबों और दलित ईसाईयों को वहां प्रवेश की भी मनाही होती है तो ऐसे धर्म
परिवर्तन का मकसद समझ में आता है. —
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