तिलहन में पिछड़ता भारत -----
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केन्द्रीय
कृषि मंत्री शरद पवार ने हाल ही में अमरीकी कम्पनियों पर भारत के तिलहन
उत्पादन कार्यक्रम को पटरी से उतारने का आरोप लगाया है। कुछ दिनों पहले
विदर्भ के दौरे पर गए पवार ने कहा, "पूरे अमरीका में सोयाबीन का उत्पादन
जेनेटिकली मोडीफाइड (जीएम) तरीके से किया जाता है। आपने (अमरीका ने) अपने
देश में यह तकनीक अपनाई है, लेकिन आप भारत में ऎसा नहीं होने देते हैं। यह
ठीक नहीं है और यह चेतावनी सूचक है।" इसके कुछ दिनों बाद ही पंजाब कृषि
आयोग के अध्यक्ष डॉ. जी.एस. कालकट ने कहा, "भारत खाद्य तेलों और दालों का
आयात करता है यानी दूसरे देशों से खरीदता है।
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पंजाब
में इनका उत्पादन क्यों नहीं किया जा सकता?" पर अगले ही वाक्य में
उन्होंने मक्के के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की मांग की।
ऎसी ही मांग उन्होंने तिलहन और दलहन के लिए नहीं की। एक और बात, कमीशन फॉर
एग्रीकल्चरल कॉस्ट एंड प्राइसेस (सीएसीपी) के चेयरमैन डॉ.अशोक गुलाटी खाद्य
तेल के बढ़ते आयात के लिए उस पॉम ऑयल की वकालत करते हैं, जिसके पेड़
पर्यावरण के लिए विनाशकारी होते हैं।
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खाद्य
तेलों के आयात में काफी वृद्धि हुई है। 2012 के अंत तक (नवम्बर 2011 से
लेकर अक्टूबर 2012 तक) खाद्य तेलों का आयात 90.1 लाख टन से ज्यादा पहुंच
गया है, जिसकी अनुमानित कीमत 56,295 करोड़ रूपए के आसपास बैठती है। वर्ष
2006-07 और 2011-12 के बीच खाद्य तेलों का आयात 380 प्रतिशत तक बढ़ गया।
ऎसे में निश्चित तौर पर तत्काल जरूरत है कि आयात घटाया जाए। इसका लाभ यह
होगा कि हर वर्ष 56,295 करोड़ रूपए जो विदेशी विनिमय में इंडोनेशिया,
मलयेशिया, अमरीका और ब्राजील के किसानों के हाथ में चले जाते हैं, वो भारत
के किसानों के हाथ में आएंगे। इन देशों से भारत खाद्य तेल खरीदता है।
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क्या
भारत के पास तिलहन की विकसित किस्में नहीं हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि
नहीं हो पा रही है? या क्या शरद पवार, जी.एस. कालकट, डॉ. अशोक गुलाटी
जानबूझकर ऎसे बयान जारी कर रहे हैं और गलत राह पर चल पड़े हैं? भारत की ओर
देखिए। वर्ष 1993-94 में यह खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर था।
धीरे-धीरे यह खाद्य तेल में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन गया।
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पूर्व
प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी बढ़ते आयात से चकित थे। मुझे याद है,
उन्होंने 1985 में खाद्य तेल के बढ़ते आयात पर चिन्ता जताई थी। तब यह 1500
करोड़ रूपए तक पहुंच गया था। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा था, "मैं यह समझ
सकता हूं कि हम पेट्रोल और खाद क्यों खरीदते हैं, क्योंकि हमारे यहां इसका
पर्याप्त उत्पादन नहीं होता है, लेकिन हम खाद्य तेल क्यों खरीद रहे हैं, जब
हम इसका उत्पादन कर सकते हैं।" उन्होंने सही दिशा में कदम उठाते हुए
ऑयलसीड्स टेक्नोलॉजी मिशन की शुरूआत की, ताकि उत्पादन बढ़े और आयात घटे।
उनके प्रयास रंग लाए। अगले दस वर्षो में ही 1993-94 तक भारत खाद्य तेल
उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर हो गया। भारत घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक
उत्पादन करने लगा। इसे "पीली क्रांति" का नाम दिया गया, लेकिन उपेक्षा के
कारण धीरे-धीरे स्थितियां खराब हुई।
जो किसानों के लिए नकदी फसल साबित हो सकती थी, वह मुख्य निर्यातक देशों के लिए लाभकारी साबित हुई।
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आयात
शुल्क कम करने के लिए स्वयं शरद पवार जिम्मेदार हैं। 2004 में आयात शुल्क
75 प्रतिशत था, कोटा सिस्टम भी था, इसके बावजूद कच्चे खाद्य तेल शोधित
खाद्य तेल का आयात सस्ता था। वर्ष 2010-11 में कच्चे खाद्य तेल का आयात
शुल्क शून्य कर दिया गया और शोधित खाद्य तेल पर आयात शुल्क 7.5 प्रतिशत।
ऎसे मे कोई आश्चर्य नहीं, वर्ष 2006 में 47 लाख टन खाद्य तेल आयात हुआ था,
जो वर्ष 2012 में 90.1 लाख टन तक पहुंच गया। ऎसा करते हुए शरद पवार बहुत
आसानी से खाद्य तेल आयात को बढ़ाकर जेनेटिकली मोडिफाइड (कृत्रिम रूप से
संवर्घित) यानी जीएम सोयाबीन को बढ़ावा दे रहे हैं। वह एक बात नहीं बता रहे
हैं, शोध के अनुसार, गैर-जीएम प्रजाति की तुलना में जीएम सोयाबीन का
उत्पादन 4 से 20 प्रतिशत कम होता है। अत: यह कतई समझ में नहीं आता है कि
जीएम प्रजाति के सोयाबीन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है।आर्यावर्त भरतखण्ड
संस्कृति
यह
कहना भी गलत है कि तिलहन की मांग को पूरा करने के लिए 30 प्रतिशत ज्यादा
क्षेत्र में तिलहन की फसल उगानी पड़ेगी। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान
के अलावा महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों को आसानी से गेहूं व
चावल से सरसों व सोयाबीन की फसल की ओर लाया जा सकता है। इससे जहां गेहूं
और चावल के भंडारों पर दबाव घटेगा, वहीं सूखी जमीन के किसानों को ज्यादा आय
भी हासिल होगी। इसके अलावा भूजल का उपयोग घटेगा, क्योकि तिलहन उत्पादन में
ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है।
पॉम
आयल प्लांटेशन हानिकारिक सिद्ध हो रहे हैं। वल्र्डवाच इंस्टीटयूट ने बताया
है कि ताड़ रोपन से मरूस्थलीकरण को बढ़ावा मिलता है, इसके अलावा इससे
ग्लोबल वार्मिग भी बढ़ती है, क्योंकि ताड़ के पेड़ उष्णकटिबंधीय जंगलों की
तुलना में 10 गुना ज्यादा कॉर्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं।
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हर
हाल में अनुभवों से यह स्पष्ट है, उत्पादन बढ़ाने के लिए किया गया कोई भी
प्रयास तब तक लाभदायी नहीं होगा, जब तक आयात शुल्क को 130 से 150 प्रतिशत
तक नहीं बढ़ाया जाएगा। यदि अनुकूल नीतियां बनें, तिलहन उत्पादन आर्थिक रूप
से लाभदायी हो, तो फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्य बहुत
आसानी से तेल के आपूर्तिकर्ता हो जाएगा। साथ ही, प्रसंस्करण उद्योग से
रोजगार भी बढ़ेंगे। हम ऎसा क्यों नहीं कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है?
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After Commerce Minister Anand Sharma, it is now the turn of
Agriculture Minister Sharad Pawar to expose his true intentions by
letting the country know how much he has been lobbying on behlf of the
American GM companies. Speaking yesterday at Nagpur he blamed US
companies -- read, foreign hand -- for the opposition to GM crops. He
specifically gave the example of the rising imports of edible oils, now
touching Rs 56,000-crore every year. He blamed it on the failure to
increase productivity of soybean, which he thinks can come from GM soy.
He is wrong on both fronts. India was almost self-sufficient in 1993-94
in edible oils. It was only after the Govt started reducing the import
tariffs, the surge of imports came in. When cheaper imports come in,
domestic producers have to quit. And that is what happened. Sharad Pawar
himself has been obliging the edible oil industry in
US/Indonesia/Malayisia and Brazil by reducing duties by almost 150%
during his tenure. Secondly, there is no GM soya in the world which
increase productivity. Even the US Department of Agriculture
acknowledges it. Therefore, who is Sharad Pawar trying to befool? http://bit.ly/VhD7DJ
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